Tuesday, April 12, 2011

काग का बात्सल्य

बाह रे  कागा 
आम के मंजर की महक के बीच
 कोयल की कूक किसे नहीं भाता है 
पर कोयल की तान पर बाग़ बाग़ होने वाला 
काग  के बात्सल्य को क्यों नहीं देख पाता है 
शायद उन्हें पता नहीं क़ि यशोदा क़ि तरह 
वो भी कोयल के अंडे को अपना मान सेती है 
अपने बच्चो के साथ उसे भी जनम देती है
पर यशोदा के बात्सल्य पर न्योछावर होने वालों
तुम्हे कागा का बात्सल्य क्यों समझ नहीं आता है
क्यों नहीं कोई कोयल की कूक मे 
काग की लोरी को सुन पाता है 
पर वह रे का कागा तू भी कितना महान है
हमारी इस असभ्यता बेरुखी से जरा नहीं घबराता है 
और अपने निःस्वार्थ प्रेम कि कहानी 
कोयल कि जुबानी हमें ही सुनाता है
यह सब इस लिए क्योकि तू मनुष्य नहीं
जिसके समाज मैं आज कोख भी बिक जाता है  





1 comment:

  1. सवाल तो और भी कई हैं.

    ड्रम और जैज़ के शोर पर थिरकने वाली ये दुनिया,
    काग की कर्कशता क्यूँ सहन नहीं कर पाती,
    कृष्ण के काले रंग से प्रीत लड़ाने वाली ये दुनिया
    काग के रंग में प्रणय का अहसास क्यूँ नहीं ढूंढ पाती,

    छोडो इन सब बातो को,
    इस दुनिया को, इसके बेतुके जज्बातों को.
    क्यूँ सर खपाना इन बेढंगे तौर-तरीकों पर,
    दिल की गहराइयों से गहरा जिनके लिए चेहरे का रंग है,
    ये ऐसे ही लोग हैं, इनका यही ढंग है!

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