परेशान हो ये दिल कहता है,
क्या ऐसा भी हो सकता है।
किसी व्यक्ति को सिर्फ अपमान मिले,
अरमान भी जिसके कुछ भी नहीं ।
न कुछ चाहत ही रखता है,
न शिकवा शिकायत ही करता है ।
सिर्फ टूटे नाव मे बैठे कुछ आफ्नो को
बस पार लगाना चाहता है ।
जीने की जिसको चाह नहीं ,
मिट जाने का परवाह नहीं।
आफ्नो को सुख मिल पाने को,
परेशान सदा वो रहता है।
यह कैसे संभव है समदर्शी प्रभु
तेरे निर्माण मे खोट रहे।
जीवन के खाते मे सिर्फ घटाव हो,
योग का न कोई जोग रहे।
उस गलती का अहसास करा,
जो किया गलत उसे मुझे समझा।
फिर हर गलती की कर तय तू सजा,
ले कर फिर पूरी हर इक्छा ।
पर बिना बताए इन दंशों से
तू मुझको निजात दिला।
वकील कोई भी बन जाए,
जज बन तू ही न्याय दिला।
ओ0 पी0
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