फ़र्ज़ का क़र्ज़
बैठने आ गया अकेले तन्हाई में , गाव के पुराने अमराई में
कुछ देर बाद हुआ यह अहसास, छाओं में अब नहीं था कुछ खास
बयार में न थी लोरी की मिठास, नहीं हवा में बची थी जीवन की आस
सबकुछ बदल सा गया था, अमराई बेचैन था, सब उजड़ सा गया था
मई कभी मालदह, कभी आलूदर, कभी मोहनभोग के दर पर गया
पर सबको उदास, उचट, उद्विग्न, बिदीर्ण ही पाया
इतने में सबसे किनारे खड़ा पुराना विशाल बीजु फुसफुसाया
क्यों बेटे कब हमें काटकर बेचने का है मन बनाया
परेशान होकर मैंने पुछा - तुमने ऐसा क्यों सोचा
इतने दिनों बाद आये हो इसीलिए जानना चाहा
क्योंकि अब खाद पानी तो कोई देता नहीं
टिकोला और आम के लिए भी कोई नहीं आता है
बस कभी कभी पत्ता और लकड़ी पूजा के लिए ले जाता है
बगल का पैलवा जर्दालु फैजली शीशम सब कट गया
अब तो सबका ध्यान इधर से उचट गया
हमने तो तुम्हारी जिंदगी को खुशहाल ही बनाया था
बदले में सबको खुश देख हरपल मुस्कुराया था
पर यह सवाल भी आज डरकर ही पूछ रहा हूं
पूछने के बाद भी अपने आप से जूझ रहा हूँ
क्योंकि आज फर्ज पर हरदम खड़ा रहने वाले को
अपनी मौत मरने का भी अधिकार नहीं
सिर्फ फर्ज करते जाओ इससे बढ़कर कोई प्यार नहीं
अब अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू नहीं
बहती नदी के दो किनारे हैं जो कभी नहीं मिलते
इन्ही सोच संशय के बीच शरीर निढाल हो आँखे मुंदने लगा
परिवार समाज का हर सदस्य अमराई का पेड़ बन कुछ कहने लगा
सबकी बातों का सार संछेप मै यही समझ पाया
कि आज फर्ज चुकाने वाले की अंतिम इक्छा का भी कोई मोल नहीं
हरपल पलक पांवड़े बिछाने वाले के भी लगते प्यारे बोल नहीं
अब तो सिर्फ पैसे की कीमत में हर कर्ज और फर्ज को आंका जाता है
निःस्वार्थ फर्ज निभाने वाले का बोल जरा नहीं सोहाता है
पर काम की कीमत देनेवाले की गाली में भी प्यार नजर आता है
और खुद को गीले पर सो जीवन देनेवाले का पुचकार भी तकरार बन जाता है
फर्ज को जीवन का अर्ज समझने वालों की प्रजाति बिलुप्त हो जाएगी
उस भयावहता के अहसास से ही चिंहुक आँख खुल गया
गर्मी की तपिश और अपनी परेशानी सारा भूल गया
सोचो जब ये छाँव ही नहीं होगा तो जीवन कैसे बचेगा
प्रकृति की सुन्दर फुलवाड़ी फिर कब सजेगा
अतः हरहाल में फर्ज का कर्ज चुकाना होगा
धुप में खड़े रहकर छाँव देने वाले को हर कीमत पर बचाना होगा
ओ० पी०
वाह क्या बात है.....................
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