कोयल की कूक किसे नहीं भाता है
पर कोयल की तान पर बाग़ बाग़ होने वाला
काग के बात्सल्य को क्यों नहीं देख पाता है
शायद उन्हें पता नहीं क़ि यशोदा क़ि तरह
वो भी कोयल के अंडे को अपना मान सेती है
अपने बच्चो के साथ उसे भी जनम देती है
पर यशोदा के बात्सल्य पर न्योछावर होने वालों
तुम्हे कागा का बात्सल्य क्यों समझ नहीं आता है
क्यों नहीं कोई कोयल की कूक मे
काग की लोरी को सुन पाता है
पर वह रे का कागा तू भी कितना महान है
हमारी इस असभ्यता बेरुखी से जरा नहीं घबराता है
और अपने निःस्वार्थ प्रेम कि कहानी
कोयल कि जुबानी हमें ही सुनाता है
यह सब इस लिए क्योकि तू मनुष्य नहीं
जिसके समाज मैं आज कोख भी बिक जाता है