Sunday, November 5, 2017

अपने ही घर में ........

अपने ही घर में, अपने लिए
ऐक जगह ढूंढता रह गया
जिंदगी को जीने की
एक वजह ढूंढता गया...
औपचारिकता की जमीन पर,
समझौता की दीवार में बंधा रह गया
झूठी मूल्यों मान्यताओं के परिवेश को
घर समझता रह गया.
अपने ही घर में........
पाषण बन आश्रय देने के वहम में
जिंदगी तबाह करता रह गया
गैरों में अपनाे को तलाशता
रिश्तों की भीड़ में तन्हा जिंदा रह गया
अपने ही घर में.......
ओ ० पी ०

Friday, January 27, 2017

अंग का अभिशाप


अंग का अभिशाप

क्या अंग देश को मिला  ये श्राप है ।
जीवन में  जहाँ मिलता सिर्फ अभिशाप है।

दानवीर की व्यथा पढ़ी थी कोर्स के किताब में।
समझा था सूतपुत्र की  वेदना को उसके संताप में।

जिस गुरु की नींद को बचाने के लिए रक्त बहाया।
उसी के श्राप से वो विद्या समय पर काम नहीं आया।

माँ और देवेंद्र ने भी उससे वरदान ही पाया था।
केशव ने छल कर उससे पार्थ को बचाया था।


मामा शल्य ने भी सारथी धर्म नहीं निभाया।
अपने योद्धा को हतोत्साहित कर युद्ध में हराया।

एक मित्र को छोड़ सब ने अपमान ही दिया था।
पर उसने अपने फर्ज़ को हर पल जिया था।

हे दानवीर, 
उस काल में जो तेरे साथ हुआ ।
नफरत के उस जहर को बहुतों ने बाद में भी पिया।

फर्क सिर्फ इतना है,
तुझे अपमानित करने वाले खुद से हार जाते थे।
युद्ध में भले हराया हो, अपनी ही नज़रों में गिर जाते थे।

आज के कर्ण को हर ओर मामा शल्य मिलता है।
घर हो या बाहर सब उसे अपना बन छलता  है।

पर आज ऐसा करने वाले जरा नहीं शर्माते हैं।
समाज में भी लोग उसे ही सभ्य बतलाते हैं।

सभ्य समाज की यह उल्टी परिभाषा कब बदलेगी ।

महारथी को रथी कहने वाले की सोच कब सुधरेगी।